Saturday 11 March 2017

Urdu Poems - Sadia Khan

~ ला-तादाद जुम्बिशों के दरमियाँ, 
यक़ीनन एक ठहराव था;
जैसे गीली मिट्टी का कुम्हार से,
बिसरे बरस का लगाव था... ~



~ उठ कर चलने को था मैं, तुंद दयार--यार से, 
कि बांह पकड़ बैठा लिया, फ़िर उस ने प्यार से... ~


~ मैं तन्हा बस एक मकान था, कल, जो ढह गया,
या ढलती शाम की रोशनी में, दूर कहीं बह गया;
पर पास जामुन के ठूंठ पर था शायद बया का घोंसला,
और घोंसले की पुश्त पर, धूल सा, मैं रह गया... ~


~ फ़ूल-फ़लियाँ, बेरियाँ, बेल-झाड़ी का घूंघट;
और दीवार में पड़ती ख़राशें, ग़ैर-वाज़ेह रहीं...
ग़ैर-वाज़ेह - obscure/concealed ~

~ सोते-सोते, तुम्हारी कमर पर, हाथ रख देना,
महज़ इत्तेफाक़ था...
मेरी आदत समझ कर इसे,
परेशां, जो तुम अब हो,
तो करवटों में गुज़रती है,
ये तन्हा, जावेदाँ नींद... ~

~ गोया कि मुद्दतें लिए,
एक काँच की बंद खिड़की पर,
मैना बैठी रही...
सद नरगिसी राब्ते,
अक्स इश्क़ थे आँखों में तैरते;
और मैं ना, बैठी रही... ~


~ उसका ज़रिया अलाहिदा,
सुनो, वो दरिया अलाहिदा,
मुख़्तलिफ नमक उसका,
रुख़, नज़रिया अलाहिदा...
सुनो, वो दरिया अलाहिदा। ~

~ दस्ते गुल सी बाहें... और मुनव्वर थे चहरे,
गोया हवास पर थे मेरे, इस्राफील के पहरे,
अंधेरी ताख़ों में फ़िर, कोई हरकत हुई थी,
मैं दाख़िल हो रहा था, जैसे ख़ुदी में, सवेरे।

इस्राफील - Israfil, angel of the trumpet in Islam , and one of the four Islamic archangels along with Mikail, Jibra'il and Izra'il. Israfil shall signal the coming of Qiyamah (Judgment or Resurrection Day) by blowing a horn, says Hadith and as well implicitly mentioned in Qur'an. ~

~ Tanhayii meri, iss qadar, tanha na thi,
Teri zaat se, jab tak, ye aashna na thi! ~

~ हो जाता है रोज़ाना, हर शब यूँ, ग़ालिबाना;
इश्क़ तुमसे एक बार कुछ कम सा लगता है... ~

~ किसकी ग़ैर-मौजूदगी का,
मुझको ग़ाफिल कर जाना;
रोशनाई इल्हाम की और,
जिस्म ज़र्रा-ज़र्रा तर जाना;

रेज़ा-रेज़ा गज़ल कमाना,
हर शब, कागज़ी घर जाना;

हासिल-ए-कुन यक-ब-यक,
यक-ब-यक, बस मर जाना...

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इल्हाम - inspiration or intuition (a thought that occurs in the heart directly without any pondering or deduction, and is the sound of the unseen)
हासिल-ए-कुन - good or gain of 'being' ~


~ वो, विर्द-ए-ज़ुबां से, करें पर्दा-पोशी;
वो ही ज़िक्र-ए-ज़ेहन में चस्पा रहे हैं... ~

~ गोया ख़ुद से, ख़ुद को, गुरेज़ाँ तब रखती,
हथेली पर ख़ैरात, बातें चन्द, जब रखती;
कोह-आतिश-फिशां में बर्ग गुस्ताख़ जैसे,
चन्द बातों में जज़्बात नुमाया सब रखती।
गुरेज़ाँ - fugitive
कोह-आतिश-फिशां - volcano
बर्ग - a petal
नुमाया - apparent/salient ~

~ क़दमों का बार-बार दहरी पर आकर रुकना; 
चश्म--मुंतज़र रही, और उम्र भी गुज़र गई... ~

~ दीदां-ए-मुक़म्मल-जहान, मुझे किस तरक़ीब से मिले,
ख़ामाख़ां दिल मुब्तला इश्क़ में, और रूह मरीजां रहे... ~

~ ज़र्द दीवार,
जिसपे स्याही में कुछ हाथों के छापे लगे हैं,
और भिड़े किवाड़ों पर जहाँ संकल नहीं है;
उनके पीछे मुस्तक़िल क़याम रखने वालों का,
जैसे दुनिया से सब वास्ता ख़त्म है।
जिल्द ख़स्ता, 
फ़ीके-रंग लिबास पोशीदा,
वो किरदार हैं
टूटे फ़ूटेशकिस्ता कहानियों के
जिनसे अब रेज़ा-भर कोई वाबस्ता नहीं है।
हम एक-दूसरे से रूबरू नहीं हैं,
हमारा पहले सा राब्ता नहीं है...
लिहाज़ाआपका तार्रुफ उनसेअब करवाऊँ कैसे,
वो अगरचे रहते यहीं हैं, मगर कुछ कहते नहीं हैं... ~

~ ये रिश्ते दुआओं की कशिश से बनते हैं। बनते ही दिल और दिमाग़ के container में सलीके से जमा दिए जाते हैं, क्योंकि पता होता है इनको नर्म, गर्म और ताज़ा रखने का क़ाय्दा। कितना सस्ता और असरदार। मुहब्बत की हौली सी आँच पर... भूले बिसरे बस एक-आध दफा हाल पूछ लेना मानो रोटी को अलट-पलट कर देखना कि कहीं कच्ची तो नहीं रह गई।
रोटी हो या रिश्ते, जहाँ ठंडे और बासी पड़े, गीले होकर बिखर जाते हैं। भूख मर सी जाती है, और गहरे लगाव का बेवजह झुकाव खु़द में वजह तलाशता सा नज़र आता है। तब कोई अंजाना परिंद रोटी ले उड़ता है... और वक़्त का एक बेश-क़ीमती टुकड़ा शायद वहीं पड़ा रह जाता है, गर्द में। ~

~ इतने ग़मों में, एक ग़म और सही,
उठ कर चले जाइए अब आप भी… ~

~ मेहंदी के कोन से, ख़ुद को लपेट आई हो जैसे,
कैसी पेचीदगी, एक लकीर समेट आई हो जैसे... ~

~ सुरमई रेशम,
इस रात के छल्ले,
तेरी, मेरी, पलकों में... फ़ंस गए हैं...
उठ के जाओ,
मज़ीद दूरी बनाओ,
कि देखो रात, फ़िर खिंच रही है... ~

~ मेरे आने-जाने पर इस क़दर आप हैरान हों क्यों?
गोशे-कुशादा लिए तसव्वुर में, मैं ठहरूं, तो कैसे?
गोशे-कुशादा - a closet (or enclosed something) with an end(s) open ~

~ गर यूँ दम-ब-दम निकले,
ख़ुद में ख़ुद से कम निकले...
निकले मुझ से तू, हर-सू,
तुझ से होकर, हम निकले। ~

~ सुबह, बाद-ए-सबा की रवानी रही
मेरे घर में फ़िर वही बियाबानी रही
ज़ंगार-ए-तबीअत न होती, तो कैसे?
बाब-ए-जिगर से वो अनजानी रही
बाद-ए-सबा- Sweet morning breeze
ज़ंगार-ए-तबीअत - Covered with rust
बाब - Door gate ~

~ और घिस लेती हूँ तमाम सेहरा, जैसे अपनी ज़ुबान पर,
कि ख़ुशक साग़र के लब पे, बैठी रही तिश्ना, मुसलसल...
साग़र - Goblet of wine ~

~ काजल अब काजल सा ठेहरे तो कैसे,
दिखता नहीं है,
वहाँ बिकता नहीं है, 
बेहके है वैसे,
सम्भलता नहीं है...
झुरमुट अंधेरा... धुंधलका हो जैसे,
काजल अब काजल सा,
चेहकता नहीं है...
बिगड़ता नहीं है,
सँवरता नहीं है,
नैन्न के पोरों पर,
सिमटता नहीं है...
काजल अब काजल से गेहरा है ऐसे,
बेहता नहीं है
बिखरता नहीं है,
काजल अब काजल सा... निखरता नहीं है। ~

~ बग़ावत आज अख़्तियारे मुहब्बत से आप यूं कीजिएे,
मेरे शहर आईऐ, बैठिएे, और अाब-ए-वस्ल न पीजिऐ। ~
~ ख़त के मज़मून सा
दिन गुज़रा उनका
मेरे पेहलू में रहा
कल हुजरा उनका ~

~ सरकारी तहरीर सा, मुझको अधूरा छोड़,
तू मेहज़ अव्वल सफहे तक ही, कोरा छोड़।~

~ इस मौसम--दर्द--हिज्र--यार में ख़ुदाया,
सूरत--वस्ल, किस क़दर बीमार कर के गई... ~

~ नक़्श रहने दो उन्हें वहीं,
दिल के सफहात में,
क़ैद हैं कहीं...
कम-अज़-कम उजरत वाले अल्फाज़,
ज़ुबान की नोक पर,
ग़ैर महफूज़ हैं...
चिंद परिंद सी फितरत, और
पाओं में ताले,
ये उड़ जाएंगे...
*** कम-अज़-कम उजरत - On minimum wage
نقش رہنے دو انہیں وہیں
دل کے صفحات میں
قید ہیں کہیں
ﮐﻢ ﺍﺯ ﮐﻢ اجرت والے ﺍﻟﻔﺎﻅ
زبان کی نوک پر
ﻏﯿﺮ ﻣﺤﻔﻮﻅ ہیں
چﻧﺪ ﭘﺮﻧﺪ سی فطرت اور 
نہ ﭘﺎﺅﮞ میں تالے
یہ اڑ جائیں گے ~

~कामिलों के इज्तिमा में फक़त जाहिल हूँ मैं,
डूबने की चाह में एक मुद्दत से साहिल हूँ मैं। ~

~ संग-ए-दर-ए-यार पर,
क़ासिद का छोड़ा ख़त हूँ मैं... ~

~ वो पैरों की छम-छम,
गलियारों में तुम हम,
हुक्के की गुड-गुड और,
सड़कें कुछ नम-नम...
मैं होता यहीं हूँ, होने से पहले।
And then in a moment such Epiphanous,
I indulge my quiescence into a dance until the last drop of frenzy...
To behold the salt
of this, and much beyond.
Do I see God...?... ~

~ ये माज़ी नहीं है, दिल है हमारा,
किसी रोज़, बहुत दूर, छोड़ आए थे... ~

~ गलियाँ यूं तंग-दस्त,
शोख़ियाँ... ख़स्ता दर, बंद,
और ताज़ा सुलगता एक नन्हा सा चूल्हा...
मैं चलूँ कहीं से,
पहुँचता यहीं हूँ,
ये बाज़ार कैसा बाज़ार है? ~

~ तुम्हारी जानिब जब भी चलता हूँ,
किसी ग़ैर के मकां से निकलता हूँ,
डाकिया ले गया वापस, ख़त सारे,
लिखे पते पर, अब नहीं मिलता हूँ। ~

~ उल्टा दौड़ती सड़कों पर, गोया साथ थे हम मगर,
Divider कमबख़्त ने, फासला... मीलों लम्बा कर दीया... ~

~ सीली आसतीनों में गीले हर्फ लिए,
सेकड़ों दश्त--दश्त, हम चल दिए...
दश्त--दश्त - Desert after desert ~

~ गुलाबी शाम और ज़रा... बेनाम थी,
ख़ामोश सुर्ख़ समंदरों का पयाम थी,
मिला करते दहलीज़ पर दो वक़्त थे,
ग़ुरूब होती तब वो भी, सरेआम थी।
ग़ुरूब - to set or get hidden like the Sun ~

~ ख़ामोशियों का एक दौर हो,
मेरे अंदर, तुम कुछ और हो... ~

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